देहरादून। उत्तराखंड का अधिकतर भू भाग पर्वतीय हैं जहां पर गांव बसे हैं इन गांव में नजाने कितनी पीढ़ियां रह चुके हैं जो खुशियों से अपना जीवन यापन करते थे ना खाने की चिंता ना ही रोजगार की, जो अपने खेतों से मिलता था उसी में अपने परिवार के साथ खुश रहते थे जबकि उस समय परिवार भी बड़े होते थे एक आदमी के पांच छः बच्चे और सात आठ लड़कियां होती थी ना उन्हें पालने ना पढ़ाने ना नौकरी ना रोजगार ना ही उनकी शादी की चिंता होती थी इतनी लड़कियां होने पर भी उस समय कोई कन्या भ्रूण हत्या नही होती थी खुशी खुशी उनका विवाह किया जाता था और अमन चैन से अपना जीवन बिताते थे लेकिन वक्त के साथ सबकुछ बदल गया जहां कभी गांव की चहल पहल व रौनक होती थी आज वो गांव बीरान से हो गए हैं ऐसा लगता है इन पहाड़ के गांव पर किसीकी नजर लग गई हो गांव के गांव खाली होते जा रहे हैं ऐसे में उन्हें रोकना जरूरी हैं कही ऐसा ना हो हमारे पूर्वजों की धरोहर गांव जंगलों में तब्दील न हो जाय।
गांव से पलायन कर रहे लोगों के बारे में उत्तराखंड में वृक्षमित्र के नाम से मशहूर पर्यावरणविद् डॉ त्रिलोक चंद्र सोनी का कहना हैं अच्छी शिक्षा पाने के बाद लोग मेहनत नही करना चाहते हैं जिस कारण युवा पलायन कर रहें हैं अगर युवा अपने रोजगार सुरु भी करते हैं तो उन्हें उचित दाम व बाजार नही मिल पाता हैं जिस कारण पलायन हो रहा हैं। डॉ सोनी कहते हैं पहाड़ जैसी विषम परिस्थितियां गांव के लोगो की हैं ये जरूर है कि हमारे यहां रोजगार के अपार संभावनाएं हैं लेकिन एक सुनियोजित तरीके से कार्ययोजना ना बनने के कारण यहां के उत्पादों को ना उचित मूल्य मिलता हैं ना ही बाजार मिल पाता हैं ऐसे में पहाड़ के युवाओं के पास पलायन के शिवा कुछ नही रहता जिस कारण उन्हें बाहरी राज्यों में रोजगार के लिए जाना पड़ता हैं।