लाख दावों के बावजूद देश में प्रदूषण पर कोई अंकुश नहीं लग पा रहा

Prashan Paheli

संजीव मिश्रा
यह बात दीगर है कि प्रदूषण के चलते लोग जानलेवा बीमारियों के चंगुल में आकर मौत के मुंह में जा रहे हैं। दुनिया के विभिन्न देशों के साथ भारत में भी स्थिति खराब है। सरकार के लाख दावों के बावजूद देश में प्रदूषण पर कोई अंकुश नहीं लग पा रहा है। आइक्यू एयर की हालिया रिपोर्ट इस तथ्य को प्रमाणित करती है कि भारत दुनिया के सबसे प्रदूषित देशों में शुमार है और वह दुनिया में तीसरे पायदान पर है। देश की राजधानी दिल्ली दुनिया की सबसे प्रदूषित राजधानी है। सबसे प्रदूषित देशों में पड़ोसी देश बांग्लादेश पहले और पाकिस्तान दूसरे पायदान पर है।

दरअसल बढ़ता प्रदूषण पर्यावरणीय चुनौतियों को और भयावह बना रहा है। यह आबादी के लिए स्वास्थ्य संबंधी जोखिम बढ़ा रहा है, जिससे असामयिक मौतों में बेतहाशा बढ़ोतरी दर्ज हो रही है। इसके पीछे पीएम 2.5 कणों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है जिनका आकार 2.5 माइक्रोन के करीब होता है। इनके बढ़ने से धुंध छाने, साफ न दिखाई देने, सांस के रोगों, गले में खराश होने, जलन और फेफडो़ं की गंभीर बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है, जो जानलेवा साबित होती हैं। असलियत में पीएम 2.5 की मात्रा 60 और पीएम 10 की मात्रा 100 होने पर ही हवा को सांस लेने के लिए सुरक्षित माना जाता है। होता यह है कि गैसोलीन, पेट्रोल, डीजल , वाहनों का धुआं, कोयला, कचरा, पराली और लकडी़ के जलने से हुए धुएं से पीएम 2.5 का उत्पादन अधिकाधिक मात्रा में होता है। अपने छोटे आकार के कारण पार्टीकुलेट मैटर फेफड़ों में आसानी से गहराई तक पहुंच जाते हैं। यह पीएम 10 से भी ज्यादा नुकसानदेह होता है। दरअसल आइक्यू एयर की हालिया रिपोर्ट दक्षिण एशियाई देश भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के लिए एक गंभीर चेतावनी है जिनकी जीवाश्म ईंधन आधारित ऊर्जा पर निर्भरता अधिक है। ईंधन के दूसरे स्रोतों पर ध्यान देना जरूरी है।

अब यदि वायु प्रदूषण से मानव स्वास्थ्य को होने वाले दुष्प्रभावों पर सिलसिलेवार गौर करें तो पाते हैं कि दावे कुछ भी किए जाएं, हकीकत में वायु प्रदूषण अब नासूर बन गया है। यह अब किसी खास मौसम की नहीं, बल्कि सालभर रहने वाली स्थायी समस्या है। यह तो अब लोगों की उम्र पर भी बुरा असर डाल रहा है। इससे जहां देशभर में रहने वाले लोगों की उम्र में 5.3 वर्ष की कमी आई है, वहीं राजधानी दिल्ली के लोगों की उम्र में 11.9 वर्ष की औसतन कमी आई है। एनवायरनमेंटल हेल्थ जर्नल में प्रकाशित यूनिवर्सिटी ऑफ ब्रिटिश कोलंबिया के अध्ययन में वायु प्रदूषण तथा मस्तिष्क के संज्ञानात्मक कार्यों के बीच संबंधों के मिले नए प्रमाणों से यह खुलासा हुआ है। अब तो यह साफ हो गया है कि वायु प्रदूषण का मस्तिष्क पर बुरा प्रभाव पड़ता है। कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी के शोध- अध्ययन से इसका खुलासा हुआ है कि बेहतर वायु गुणवत्ता से आत्महत्या की दर में कमी आ सकती है। शोध का निष्कर्ष जो नेचर सस्टेनेबिलिटी जर्नल में प्रकाशित हुआ है, के अनुसार चीन में पिछले पांच सालों में वायु प्रदूषण घटने से वहां आत्महत्या के चलते मौत के मामलों में तेजी से कमी दर्ज की गयी है। यदि आप अत्यधिक प्रदूषषित वातावरण में दो घंटे भी रह लेते हैं तो आपके मस्तिष्क के कामकाज में बिगाड़ पैदा हो सकता है। जंगल की आग से निकलने वाले धुएं का भी स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव पड़ता है।

मानव जीवन तो प्रदूषण की मार से बेहाल है ही, पेड़-पौधे भी तापमान वृद्धि के चलते सांस नहीं ले पा रहे हैं। हालत यह है कि जो पेड़ वातावरण में कार्बन डाइ आक्साइड को अवशोषित कर जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने में मदद कर रहे थे, वे अब उसमें खुद को असमर्थ पा रहे हैं। हालिया शोध इसके प्रमाण हैं कि अब पेडो़ं में सांस लेने और जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने की क्षमता कम हो गई है। इसमें दो राय नहीं है कि वायु प्रदूषण मानव स्वास्थ्य के लिए सबसे बडा़ पर्यावरणीय खतरा बन चुका है। हालात को देखते हुए नीति निर्माताओं को प्रदूषण को कम करने के लिए ठोस और कारगर नीतियों का निर्माण करना चाहिए।

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