नयी दिल्ली। बारिश का मौसम है चाय के साथ पकौड़े हर किसी को रास आते हैं। लेकिन एक बार फिर से पकौड़े पर चर्चा शुरू हो गई है। आपको बता दें कि साल 2018 की शुरुआती महीनों में केंद्र की मोदी सरकार को कांग्रेस ने रोजगार के मुद्दे पर घेरने का प्रयास किया था। उस तत्कालीन राज्यसभा सांसद अमित शाह ने सदन में कहा था कि बेरोजगारी से तो अच्छा है कि कोई युवा मजदूरी करके पकौड़ा बनाए। अपने परिश्रम से पसीना बहाकर हजारो-कड़ोरों युवा जो पकौड़ा बना रहे हैं उनकी तुलना आप भिक्षुक से कर रहे हैं। भिक्षुक से तुलना करना शर्म की बात है।
दरअसल, एक टीवी इंटरव्यू में रोजगार के मुद्दे पर उठे सवाल पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था पकौड़े बेचना भी रोजगार है। इस पर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी चिदंबरम ने तंज कसते हुए ट्वीट किया था कि पकौड़ा बेचना अगर रोजगार है तो फिर भीख मांगने को भी रोजगार के विकल्प के तौर पर देखना चाहिए। पी चिदंबरम के इसी ट्वीट का अमित शाह ने सदन में जवाब दिया था और इसी के साथ ही पकौड़े पर चर्चा शुरू हो गई थी। लेकिन अब आप सोच रहे होंगे कि यह बात को 3 साल बीत गए हैं फिर अब चर्चा क्यों हो रही है तो आपको बता दें कि पकौड़े बनाना भी अब आसान नहीं रह गया है।
देश में खाद्य तेल की कीमतें आसमान पर हैं, ऐसे में पकौड़ा बेचकर आत्मनिर्भर बनने का सपना अभी ठीक नहीं है। अंग्रेजी समाचार वेबसाइट ‘टाइम्स ऑफ इंडिया‘ की रिपोर्ट के मुताबिक आयत होने वाले तेलों की कीमतों में काफी ज्यादा वृद्धि हुई है। इसके बावजूद मोदी सरकार आयात शुल्क को कम करने पर कोई विचार नहीं कर रही है। जिसकी वजह से आम लोगों को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है।
रिपोर्ट में दिल्ली में तेजी से बढ़ी कीमतों का आंकड़ा पेश किया गया है। जनवरी 2018 से उपलब्ध निरंतर आंकड़ों से पता चलता है कि मूंगफली के तेल की कीमतों में 15 फीसदी, सरसों के तेल में 39.9 फीसदी, सोयाबीन के तेल में 55.5 फीसदी, वनस्पति में 56.2 फीसदी, पाम के तेल में 61.9 फीसदी और सूरजमुखी के तेल की कीमतों में 76 फीसदी की वृद्धि हुई है। ठीक ऐसा ही हाल दूसरे महानगरों का भी है।
रिपोर्ट में बताया गया है कि खुदरा व्यापारियों का मार्जिन जरूर घट गया है। रिपोर्ट के मुताबिक ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि तेल की बढ़ी कीमतों से दुकानदार के प्राफिट में बढ़ोत्तरी हुई होगी। उदाहरण के तौर पर आपको समझाते है कि मूंगफली की थोक कीमत में 31.3 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है जबकि खुदरा कीमतें 15 फीसदी ही बढ़ी हैं। इसी वजह से सरसों के तेल की थोक कीमत 48.2 फीसदी बढ़ने के बावजूद खुदरा कीमत में 39.9 फीसदी की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। जिसका मतलब साफ है कि खुदरा व्यापारियों का मार्जिन कम हो गया है।
फसलों को नहीं ठहरा सकते जिम्मेदारी
खाद्य तेलों की कीमतों में बढ़ोत्तरी फसलों की कमी के चलते नहीं हुई है। कुछ फसलों को छोड़ दिया जाए तो इस बार प्रमुख तिलहनी फसलों की पैदावार सामान्य रूप से बढ़ रही है। इसमें मांग और पूर्ति वाला तर्क भी नहीं दिया जा सकता है। रिपोर्ट के मुताबिक देश में प्रति व्यक्ति खाद्य तेल की मांग वैश्विक औसत से कहीं कम है और इसमें मामूली गिरावट भी दर्ज की गई है।
आपको बता दें कि भारत को अपनी मांग का आधा तेल दूसरे देशों के आयात करना पड़ता है। उत्पादन के मामले में अभी देश आत्मनिर्भर नहीं हो पाया है। रिपोर्ट के मुताबिक देश की खाद्य तेलों की मांग को पूरा करने के लिए 56 फीसदी आयात करना पड़ता है और अगर हम तेलों की बात करें तो जितना तेल आयात होता है उसमें 95 फीसदी तेल पाम, सोयाबीन और सूरजमुखी का होता है।
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भारत में तेलों की कीमतों में जो इजाफा हुआ है उसके लिए अंतरराष्ट्रीय बाजार जिम्मेदार हैं। क्योंकि वहां पर पाम, सोयाबीन और सूरजमुखी के तेल में 2018 से लेकर 2021 के बीच में काफी बढ़ोत्तरी हुई है। पाम तेल की कीमतों में तो 83 फीसदी तक बढोत्तरी दर्ज की गई है। जबकि सोयाबीन 84 फीसदी और सूरजमुखी का तेल 106 फीसदी महंगा हुआ है।
रिपोर्ट के मुताबिक सरकार ने जून में खाद्य तेलों के आयात शुल्क में मामलू कटौती की थी लेकिन फिर भी हाल के वर्षों में टैक्स काफी ज्यादा बढ़ा है। इसे आप इस उदाहरण से समझ सकते हैं। दरअसल, पाम तेल में साल 2015 में आयात शुल्क 7.5 फीसदी लगता था जो 29 फीसदी हो गया है। जिसमें कृषि उपकर भी शामिल है। वहीं सोयाबीन और सूरजमुखी के तेल पर आयात शुल्क और उपकर 2015 में 7.5 फीसदी था जो अब 38 फीसदी है।
विशेषज्ञों का मानना है कि उच्च आयात टैक्स इस क्षेत्र में भारतीय उद्योगों को प्रोत्साहित करने में मदद कर सकते हैं, लेकिन मौजूदा आर्थिक संकट को देखते हुए वे घरों को नुकसान पहुंचा रहे हैं। खाद्य तेलों की इन्हीं बढ़ी हुई कीमतों की वजह से पकौड़ा तलना अब महंगा हो गया है। क्योंकि उनपर टैक्स की मार है।